भारतीय समाज को समझ पाना बहुत ही मुश्किल है। अधिकतर मैंने उनको उन चीज़ो के लिए आंदोलन या विरोध करते हुए देखा है जो ज्यादा महत्व नहीं रखते। लोग पेट्रोल के लिए सड़क पर उतर आएंगे , रेलवे के किराये के लिए , टैक्स बढ़ने के लिए या टोल टैक्स लगाने के विरोध में। पर कभी मैंने स्वास्थ्य सेवाओ के लिए किसी को विरोध करते नही देखा।
कभी किसी को दवा के बढ़े दामो के लिए विरोध करते हुए नही देखा। डॉक्टरों की महंगी फीस का विरोध करते नही देखा। गंदे पानी की समस्या का विरोध करते नही देखा। डॉक्टरों की कमी के लिए हॉस्पिटल को बंद करते नही देखा। गली में फैली गंदगी को लेकर इकटे होते नही देखा है।
क्या कारण है कि हम अपने स्वास्थ्य के प्रति इतने उदासीन क्यों है। हमारे नेता भी हमे पेट्रोल के रेट बढ़ने पर सड़क पर उतरने को उकसाते है। वही नेता स्वास्थ्ये के मामले में चुपी साध लेते है। पेट्रोल के बढ़े दाम , रेलवे का किराया , इन सबसे हमे ज्यादा फर्क नही पड़ता। हमारे बजट में भी 500 से 1000/- महीने का फर्क ही पड़ेगा। किन्तु एक 50 पैसे की बनने वाली दवा अगर 5 रूपए में बिकती है तो किसी को फर्क नही पड़ता। डॉक्टर अपनी फीस हर 6 महीने में 50/- बढ़ा देता है सब चुप चाप पैसे दे जाते है।
हॉस्पिटल में जब तक कोई मृत्यु नही होती तब तक वहां सविधाओं का कोई विरोध नही होता। क्या कभी सोचा है कि स्वास्थ्य सेवाएं इतनी महंगी क्यों है। एक परिवार कभी पेट्रोल या रेल किराये से बर्बाद नही होता। परिवार इलाज़ के लिए पैसे इकटा करते करते घर और बाहर सब कुछ बेच देता है। ये सब घटनाये न मीडिया को पता चलती है और न कोई इन्हे दिखाना चाहता है। क्यों कि मीडिया को गवर्नमेंट से जुडी बाते या बॉलीवुड से जुडी बातो में ही इंटरेस्ट है। एक आम आदमी की खबर में उसको क्यों दिलचस्पी होने लगी।
बर्बाद होते घर उसको भी क्यों नजर आने लगे। उन्होंने भी खुद को बेचना ही तो है। कैंसर की दवा की कीमत इतनी होती है जितनी तो भारत के ज्यादातर लोगो की आय भी नही होती और फिर भी ठीक होने की कोई गरंटी नही है। स्वास्थ्य सविधाये हमारा जनम सिद्ध अधिकार है। शिक्षा की तरह स्वास्थ्य सेवा भी मुक्त होनी चाहये। छोटी छोटी जरुरतो के लिए हंगामा करने वालो से मेरा एक प्रसन है – क्या हमें 5 रु बढ़ना ज्यादा फर्क डालता है जो महीने में 1000 रु तक अंतर करता है बजट में या एक स्टंट जो हार्ट सर्जरी में मरीज की जान बचाने के लिए उपयोग में लाया जाता है जिसकी असल कीमत कुछक हजार से ज्यादा नही होती ओर 1.5 लाख तक खर्च करती है।
क्या कभी किसी ने दवा की असल कीमत जानने का प्रयत्न किया है। या किसी ने RTI डाली है ये जानने के लिए। मै इसी प्रोफेशन से हूँ और मुझे पता है ज्यादातर कंपनिया या डॉक्टर मेरे इस लेख को पसंद नही करेंगे। एक प्रोफेशनल होने के नाते में सोच सकता हूँ कि कम्पनियो को मार्जिन चाहिए , डॉक्टर्स को कमीशन देकर प्रिस्क्राइब करा ली दवा। मुझे भी मार्जिन मिल गया और डॉक्टर्स को उनका कमीशन। मुझे भी घर चलाने के लिए पैसा चाहिए , डॉक्टर्स को भी घर चलाने के पैसे चाहिए। लेकिन मार्जिन की एक हद होती है , 10 %, 15 % या 20 % . इतना मार्जिन बहुत होता है अपनी आवश्यकताएं पूरी करने के लिए। 1 रु की मैन्युफैक्चरिंग कॉस्ट पर बनी दवाई 4 रु के एमआरपी पर बिके तो समझ सकते है सबके मार्जिन भी अच्छी तरह निकल गए और मरीज को ज्यादा खर्च भी नही करना पड़ता।
पर प्रॉब्लम वहाँ आती है जब मार्जिन की कोई सीमा नही होती। 1 रु कोस्ट वाली दवा जब 10 रु में बिकने लगे। 5 रु की कोस्ट वाले इंजेक्शन 120 रु में बिकने लगे। 60 पैसे का कैप्सूल 12 एमआरपी पर बिकने लगे। और ऐसा ही होता आया है फार्मा मार्किट में। बड़ी कम्पनियो से लेकर छोटी कम्पनियो तक सबने ये ही फंडा अपनाया है। डीपीसीओ ने तो कुछ हद तक लगाम लगाई थी पर उन प्रोडक्ट्स का क्या जो डीपीसी ओ में नही आते। 32 रु के आस पास की लागत वाला प्रोटीन पाउडर 195 रु में बिक रहा है। 30 -40 पैसे की लागत वाली मल्टी विटामिन्स , मल्टी मिनरल्स प्रोडक्ट्स 10 रु में बिक रहे है।
जितनी भी लाइफ सेविंग दवाई है सब की लागत बहुत ही कम होती है और बिकती है सोने के मोल। क्या इनके रेट्स इनकी लागत के अनुसार नही होने चाहिए। फिर क्यों कोई आन्दोलन नही करता। ज्यादातर केमिस्ट दुकाने गैर फार्मेसी लोगो द्वारा संचालित है , जिनका काम केवल प्रॉफिट कमाना है। विदेशी कंपनिया भी केवल भारतीये पैसे को बाहर भेज़ने में लगी है। भारतीये कम्पनियो को भी केवल लाभ से मतलब है। पेटेंट करा कर आप किसी मॉलिक्यूल को उसकी लागत के 100 गुणा मार्जिन पर कैसे बेच सकते हो। क्या ये उस कंपनी का कर्तव्य नही है जो सालो से अरबो रु मरीजों से कमा रही है।
किसी भी नये मॉलिक्यूल की खोज किसी भी कंपनी का कर्तव्य है। इसके लिए उसे अपने लाभ से हिस्सा निकाल कर उपयोग में लाना चाहिए न कि नयी खोज कर उससे बेमतलब लाभ कमाना चाहिए। विकसित देश हमेशा ही पेटेंट का रोना रोते रहते है। एक तरफ तो वो गरीब देशो को आर्थिक मद्दत देते है और साथ ही हद से ज्यादा महंगी मेडिसन बेच कर सारा पैसा निकाल लेते है। तभी तो गरीब देश और गरीब होता जा रहा है।
गवर्नमेंट को कुछ और प्रभाव शाली कदम उठाने चाहिए बारे में। सस्ती मेडिसिन किसी का घर बचा सकती है बिकने से। लड़ना है तो अपने इस हक़ के लिए लड़ो। एक किसान की फसल उसकी लागत के 20 % पर भी नही बिकती फिर भी महंगाई का रोना सब रो देते है। मेडिसिन अपनी लागत से कई गुना महंगी बिकती है फिर भी कोई महंगाई के बारे में नही कहता।
दवा हर इंसान मज़बूरी में खरीदता है। तो क्या इसे मज़बूरी का फयदा उठाना नही कहते। दिन भर मेहनत के बाद इंसान जितना कमाता है उसका 40 % के आस पास तो दवा में खर्च हो जाता है। अगर दवा सस्ती हो जाये तो महंगाई का नाम ही खत्म हो जायेगा। मै उम्मीद करता हु कि भविष्य में जल्द ही सस्ती दवा और घर-घर स्वास्थ्य का सपना जरूर पूरा हो जायेगा
धन्यवाद।
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