छोटे दवा निर्माताओ पर इसीलिए भी दबाव है क्यों कि भारत में भी वो मूल्य नियंत्रण का सामना कर रहे है। और अगर उन्हें अमरीकी बाजार में प्रवेश करना है तो उन्हें ओर निवेश करना होगा। नही तो दूसरे बाजार की तलाश पड़ेगी। वैस्विक उपस्थिती दर्ज कराने के लिए क्वालिटी और इंफ्रास्ट्रक्चर पर और खर्च करना होगा नहीं तो भारत से बाहर की बाजार में पहंचने की योजना को रद्द करना या दूसरी मार्किट की खोज करना ही शेष बाकि रह जाता है।
लगभग सभी भारतीय कम्पनियो की अमरीकी सेल्स पर गहरा असर पड़ रहा है क्यों कि USFDA अपनी समीक्षा पृणाली में व्यापक बदलाव कर रहा है जिससे दवा अनुमति मिलने में देरी हो रही है। कुछ कम्पनियो ने अपने आप को ब्लॉक में रखा हुआ है अगर वे सख्त नियमों के साथ समंजसये नहीं बैठा सकते, वे बेचना पसंद कर सकते हैं। इस साल मार्च 2015 से अब तक 14% अमीरीकी सेल्स में गिरावट दर्ज की गयी है, साल 2012 की इसी अवधि की सेल्स के अनुसार।
रैनबैक्सी पर हुए जुर्माने के बाद भारतीय कम्पनियो ने अपने खर्चो में काफी बढ़ोतरी की थी। उच्च गुणवत्ता वाली टेस्टिंग लैबोरेट्रीज और उच्च शिक्षा प्राप्त एम्प्लाइज पर काफी खर्च किया गया जिससे इन कम्पनियो की लागत में काफी फर्क पड़ा था। कुछ कम्पनियो के लिए यह खर्च दोगुना बढ़ कर कुल लागत का 6 से 7 % तक पहुंच गया है। जो कि एक परेसानी का सबब है। इससे उनकी लागत मूल्य पर विपरीत असर पड़ा है।
भारतीय कंपनियों पर अमेरिकी निर्यात पर लगाई रोक की संख्या 2013 में 21 से 2014 में आठ तक गिर गया लेकिन एफडीए के आंकड़ों के अनुसार, एजेंसी, देश की सबसे बड़े दवा निर्मातो में से कुछ के संयंत्रों में विनिर्माण के उल्लंघन की जांच कर रही है। पिछले साल भर में सन फार्मास्युटिकल इंडस्ट्रीज, वोकहार्ट, डॉ रेड्डीज लैबोरेटरीज और कैडिला हेल्थकेयर सभी ने एफडीए से वार्निंग का सामना करना पड़ा है। छोटी कंपनियों जैसे इप्का और आरती ड्रग के संयंत्रों पर इस साल FDA ने रोक लगाई। छोटी कंपनियों में से कुछ गहन विनियामक जांच के दायरे में जूझ रही है।