डी. पी. सी. ओ. 2013 का असर

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डी. पी. सी. ओ. 2013 (dpco) के लागु होने के बाद फार्मास्यूटिकल सेक्टर में  एक बार काफी हलचल  पैदा हो गयी थी। किन्तु समय के साथ सब कुछ सामन्य होता गया। एक बार तो फ्रेंचाइजी कम्पनीज का भविस्य अंधकार में प्रतीत हुआ। लेकिन फ्रेंचाइजी बिज़नेस ने भी अपने आप को बहुत ही मजबूती से आगे बढ़ाया।

डी. पी. सी. ओ. 2013, डी. पी. सी. ओ. 1995 से बिलकुल ही अलग था। जहाँ डी. पी. सी. ओ. 1995 के तहत 74 ड्रग्स को प्राइस कंट्रोल के तहत रखा गया था वही डी. पी. सी. ओ. 2013 में 348 आवश्यक दवाओं को मूल्य नियंत्रण की श्रेणी में रखा गया। जिसे बाद में बड़ा कर लगभग 652 कर दिया गया। उसके बाद तो जैसे दवाईयो के मूल्य नियंत्रण में आने की एक प्रकिर्या ही चल पड़ी। 1 या 2 महीने के अंतराल में नयी दवा या पुरानी दवा का मूल्य परिवर्तित होता रहता है।

जिन 348 दवाओ को मूल्य नियंत्रण में रखा गया था उनकी मार्किट लगभग 29000 करोड़ थी. संभव था कि ये एक बहुत बड़ा झटका होने वाला था दवा कम्पनीज के लिए और फायदा होने वाला था गरीब मरीजों को। डी. पी. सी. ओ. 2013 के अंतर्गत मूल्य निर्धारण की प्रिक्रया में भी परिवर्तन किया गया। दवा का मूल्य औसत के आधार पर कर दिया गया। 1 % से ज्यादा शेयर वाले ब्रांड्स के औसत एमआरपी से डी. पी. सी. ओ. एमआरपी निकाला जाता है और समय समय पर परिवर्तित किया जाता है। जिस वजह से मार्किट में पहले चल रहे एमआरपी में तकरीबन 25 से 35 % तक गिरावट आई।

डी. पी. सी. ओ. का सभी कम्पनियो पर अलग अलग प्रभाव पड़ा। मैनकाइंड फार्मा ने जहां जुलाई में ग्रो किया था क्यूंकि उसके प्रोडक्ट्स के एमआरपी सीलिंग प्राइस से पहले ही कम थे वही जुलाई 2013 के ही दौरान रैनबैक्सी लैबोरेट्रीज को सीलिंग प्राइस की वजह से नुकसान उठाना पड़ा। इसी तरह ही कुछ कम्पनियो को नुकसान तो कुछ को डी. पी. सी. ओ. की वजह से लाभ हुआ। लेकिन जो हुआ मरीजों को इसका लाभ जरूर मिला।

जिस बिंदु को गौर नहीं किया गया वो था कच्चे माल (RAW MATERIAL ) का विनयमन। दवा के मूल्य नियंत्रण  आने के बाद अगर कच्चे माल के मूल्य में बहुत ज्यादा ज्यादा वृद्धि होती है तो कंपनिया दवा बनाने की बजाय उसे बंद करना ज्यादा उचित समझेगी। इस  बारे में भी कुछ विचार किया जाना चाहये।

आये कुछ जानते है कि क्या असर हुआ डी. पी. सी. ओ. 2013 का फार्मा सेक्टर पर :

अधिकतम खुदरा मूल्य (MRP ) में संतुलन : सबसे बड़ा जो असर जो डी. पी. सी. ओ.का देखने को मिला वो था मार्किट में एमआरपी संतुलन। अगर देखा जाये तो एक ही तरह के मोलेक्युल्स का अलग -अलग कम्पनियो के एमआरपी में  बहुत ज्यादा अंतर था। जो डी. पी. सी. ओ. 2013 के बाद काफी हद तक काम हुआ और दूसरा बड़ी फार्मा कम्पनीज को अपनी सेल्स मजबूत करने  एमआरपी और ज्यादा काम करने पड़े।

ग्रोथ पर नकारात्मक प्रभाव : डी. पी. सी. ओ. 2013 लागु होने के बाद सेल्स में 9 % ग्रोथ देखी गयी जोकि पिछले साल के 17. 4 के मुकाबले बहुत ही काम थी। डी. पी. सी. ओ. के साथ साथ बढ़ते विनियमन ने भी फार्मा सेक्टर को प्रभावित किया। यु एस ए और यूरोपियन विनियमन ने निर्यात पर असर डाला किन्तु  भी फार्मा कम्पनीज ने अच्छी प्रगति की।

आवश्यक दवा की कमी : डी. पी. सी. ओ. 2013 के बाद कुछ दवा कम्पनियो ने दवाओ को बनाना ही बंद कर दिया।  किन्तु बाद में जब उनका निर्माण दोबारा शुरू कर दिया। जिससे जल्द ही दवा की कमी को पूरा कर लिया गया।

दवाओ का प्रतिस्थापन : मार्किट में जैसे डी. पी. सी. ओ. ड्रग्स को दूसरी दवा से बदलने की मानो ओढ़ सी लग गयी थी। कुछ कम्पनियो ने डी. पी. सी. ओ. प्रोडक्ट्स की जगह दूसरे मिलते जुलते मॉलिक्यूल को बढ़ावा देना शुरू कर दिया तो कुछ डॉक्टर्स ने कम कमीशन के चलते उन प्रोडक्ट्स को लिखना ही बंद कर दिया। एंटीबायोटिक्स को सबसे जल्दी और सबसे ज्यादा बदला गया। मार्किट में या तो नए कॉम्बिनेशंस पर जोर दिया जाने लगा या थोड़ी बहुत बदलाव कर डी. पी. सी. ओ. एमआरपी से बचा गया।

फ़ूड प्रोडक्ट्स पर  जोर : दवा में  अच्छा मुनाफा न होने के कारण फ़ूड आर्टिकल्स जैसेकि विटामिन्स , मिनरल्स के दामों में बहुत बढ़ोतरी हुई और इनका ईस्तमाल में काफी बड़ा।

दवा मार्किट में मोह भंग : जहा पहले लोगो को लगता था कि इस मार्किट में बहुत लाभ है।  वही अब फार्मा मार्किट असमंजस सी स्थति में पंहुंच गयी है। सख्त होते कानून और सामाजिक जागरूकता भी एक महत्वपूर्ण कारण है।

किन्तु एक बात तो अवश्य है कि इसका लाभ मरीजों को कितना मिल पा रहा है ये तो  आज भी डॉक्टर पर ही निर्भर करता है।

धन्यवाद।

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